2:20 PM
जस मांसु पशु की तस मांसु नर की,
रूधिर—रूधिर एक सारा जी ।
पशु की मांसु भखै सब कोई,
नरहिं न भखै सियारा जी ।।
ब्रह्म कुलाल मेदिनी भरिया,
उपजि बिनसि कित गईया जी ।
मांसु मछरिया तो पै खैये,
जो खेतन मँह बोइया जी ।।
माटी के करि देवी देवा,
काटि काटि जिव देइया जी ।
जो तोहरा है सांचा देवा,
खेत चरत क्यों न लेइया जी ।।
कहँहि कबीर सुनो हो संतो,
राम नाम नित लेइया जी ।
जो किछु कियउ जिभ्या के स्वारथ,
बदल पराया देइया जी ।।
(शब्द—70)
शब्दार्थ:— जैसा पशु का मांस, वैसा ही मनुष्य का मांस है दोनों में एक ही रक्त बहती है। मांसाहारी पशु मांस का भक्षण करते हैं और जो मनुष्य ऐसा करता है वो सियार के समान है। ईश्वर रूपी कुम्हार (ब्रह्म कुलाल) ने इतने बाग—बगीचे बनाये, फल—फूल बनाया वो सब उपज कर कहाँ जाते हैं। मांस—मछली खाना तो दोषपूर्ण (पै) है, उसे खाओ जो खेतों में बोआ जाता है। मिट्टी के देवी—देवता बनाकर उन्हें जीवित पशु की बलि चढ़ाते हो। यदि तुम्हारे देवता सचमुच बलि चाहते हैं तो वह खेतों में चरते हुए पशुओं को क्यों नहीं खा जाता। कबीर साहेब कहते हैं कि यह सब कर्म त्याग कर नित राम—नाम का सुमिरन किया करो अन्यथा तुम जो भी अपने जिह्वा के स्वाद के कारण यह कर रहे हो उसका बदला भी तुम्हें उसी तरह चुकाना पड़ेगा।
वेदों में भी कहा गया है:—
''व्रीहिमत्तं यवमत्तमथोमाषम तिलम्
एष वां भागो निहितो रत्नधेयाय
दन्तौ मा हिंसिष्टं पितरं मातरं च।''
शब्दार्थ: चावल खाओ(व्रीहिम् अत्तं), जौ खाओ(यवम् अत्तं) और उड़द खाओ(अथो माषम्) और तिल खाओ(अथो तिलम्)। हे ऊपर—नीचे के दांत(दन्तौ) तुम्हारे(वां) ये भाग(एष भागो) निहित हैं उत्तम फलादि के लिए (रत्नधेयाय)। किसी नर और मादा को(पितरं मातरं च) मत मारो(मा हिं सिष्टं)।
जस मांसु पशु की तस मांसु नर की, रूधिर—रूधिर एक सारा जी । पशु की मांसु भखै सब कोई, नरहिं न भखै सियारा जी ।। ब्रह्म कुलाल मेदिनी भरिय...
मांस—भक्षण से परहेज
मांस—भक्षण से परहेज
मांस—भक्षण से परहेज
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जस मांसु पशु की तस मांसु नर की,
रूधिर—रूधिर एक सारा जी ।
पशु की मांसु भखै सब कोई,
नरहिं न भखै सियारा जी ।।
ब्रह्म कुलाल मेदिनी भरिया,
उपजि बिनसि कित गईया जी ।
मांसु मछरिया तो पै खैये,
जो खेतन मँह बोइया जी ।।
माटी के करि देवी देवा,
काटि काटि जिव देइया जी ।
जो तोहरा है सांचा देवा,
खेत चरत क्यों न लेइया जी ।।
कहँहि कबीर सुनो हो संतो,
राम नाम नित लेइया जी ।
जो किछु कियउ जिभ्या के स्वारथ,
बदल पराया देइया जी ।।
(शब्द—70)
शब्दार्थ:— जैसा पशु का मांस, वैसा ही मनुष्य का मांस है दोनों में एक ही रक्त बहती है। मांसाहारी पशु मांस का भक्षण करते हैं और जो मनुष्य ऐसा करता है वो सियार के समान है। ईश्वर रूपी कुम्हार (ब्रह्म कुलाल) ने इतने बाग—बगीचे बनाये, फल—फूल बनाया वो सब उपज कर कहाँ जाते हैं। मांस—मछली खाना तो दोषपूर्ण (पै) है, उसे खाओ जो खेतों में बोआ जाता है। मिट्टी के देवी—देवता बनाकर उन्हें जीवित पशु की बलि चढ़ाते हो। यदि तुम्हारे देवता सचमुच बलि चाहते हैं तो वह खेतों में चरते हुए पशुओं को क्यों नहीं खा जाता। कबीर साहेब कहते हैं कि यह सब कर्म त्याग कर नित राम—नाम का सुमिरन किया करो अन्यथा तुम जो भी अपने जिह्वा के स्वाद के कारण यह कर रहे हो उसका बदला भी तुम्हें उसी तरह चुकाना पड़ेगा।
वेदों में भी कहा गया है:—
''व्रीहिमत्तं यवमत्तमथोमाषम तिलम्
एष वां भागो निहितो रत्नधेयाय
दन्तौ मा हिंसिष्टं पितरं मातरं च।''
शब्दार्थ: चावल खाओ(व्रीहिम् अत्तं), जौ खाओ(यवम् अत्तं) और उड़द खाओ(अथो माषम्) और तिल खाओ(अथो तिलम्)। हे ऊपर—नीचे के दांत(दन्तौ) तुम्हारे(वां) ये भाग(एष भागो) निहित हैं उत्तम फलादि के लिए (रत्नधेयाय)। किसी नर और मादा को(पितरं मातरं च) मत मारो(मा हिं सिष्टं)।
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मालिक बाबा - परम पूज्य बौआ साहब जू
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बहुत ही सात्विक कबीर वाणी!!
ReplyDeleteसाधुवाद इस उत्तम आलेख के लिए।
निरामिष पर आपके आगमन का आभार मित्र!!
aabhaar aapka
ReplyDeleteमाटी के करि देवी देवा,
ReplyDeleteकाटि काटि जिव देइया जी ।
जो तोहरा है सांचा देवा,
खेत चरत क्यों न लेइया जी ।।
gazab
ReplyDeleteसामाजिक कुरीतियों और अंधविश्वासों को दूर करने वाले संत कबीर और ऋषि दयानंद सरस्वती जैसे समाज सुधारकों को शैक्षिक पाठ्यक्रम में आगामी शिक्षा नीति में सम्मिलित करना आवश्यक है।
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